Sunday, March 2, 2025

बहुजन समाज पार्टी का संकट और दलित राजनीति का भविष्य

 



जय प्रकाश 



बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) कभी उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक मजबूत ताकत हुआ करती थी। 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता हासिल करने वाली यह पार्टी पिछले डेढ़ दशक से लगातार कमजोर होती जा रही है। 2012 के विधानसभा चुनावों से शुरू हुआ हार का सिलसिला आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा। 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का खाता तक नहीं खुला, और 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट पर सिमट गई। इस बीच, पार्टी सुप्रीमो मायावती का अपने करीबी नेताओं को बाहर करने का सिलसिला भी जारी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या दलित राजनीति अब बीएसपी के हाथ से निकल रही है? क्या यह कांग्रेस की ओर बढ़ेगी, या फिर चंद्रशेखर आजाद जैसे नए नेता इसका नेतृत्व संभालेंगे?

बीएसपी का पतन: 2012 से अब तक

2012 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी को 80 सीटें मिली थीं, जो 2007 के 206 के मुकाबले भारी गिरावट थी। इसके बाद 2017 में यह संख्या घटकर 19 और 2022 में महज 1 रह गई। लोकसभा चुनावों में भी पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। 2019 में समाजवादी पार्टी (एसपी) के साथ गठबंधन के बावजूद 10 सीटें जीतने वाली बीएसपी 2024 में शून्य पर आ गई। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मायावती की रणनीति और नेतृत्व शैली इस पतन के प्रमुख कारण हैं। उनकी एकछत्र कार्यशैली, गठबंधन से दूरी, और पुराने नेताओं को पार्टी से बाहर करने के फैसले ने बीएसपी को कमजोर किया है। 

मायावती ने हाल के वर्षों में नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा, और हाल ही में अपने भतीजे आकाश आनंद के ससुर अशोक सिद्धार्थ जैसे नेताओं को पार्टी से निकाला। आकाश आनंद को पहले उत्तराधिकारी घोषित किया गया, फिर 2024 में सभी पदों से हटा दिया गया।  इसके बाद अब रविवार को मायावती ने आकाश आनंद को फिर सभी पदों से मुक्त कर दिया। यह बार-बार बदलाव और नेताओं को हटाने का सिलसिला बीएसपी के कैडर में भ्रम और असंतोष पैदा कर रहा है। पार्टी का संगठन कमजोर हो गया है, और इसका कोर वोट बैंक—दलित समुदाय—अब विकल्प तलाश रहा है।



दलित वोट का बिखराव

बीएसपी का आधार हमेशा से दलित वोटर, खासकर जाटव समुदाय रहा है। लेकिन पिछले कुछ चुनावों में यह वोट बैंक खिसकता दिख रहा है। 2024 के लोकसभा चुनाव के एग्जिट पोल और विश्लेषण बताते हैं कि जाटव और गैर-जाटव दलित वोटों का एक हिस्सा कांग्रेस और एसपी की ओर गया। कांग्रेस ने जातिगत जनगणना और आरक्षण जैसे मुद्दों को उठाकर दलितों को लुभाने की कोशिश की, जिसका असर दिखा। वहीं, आजाद समाज पार्टी (एएसपी) के नेता चंद्रशेखर आजाद ने भी दलित युवाओं के बीच अपनी पैठ बनाई। 2024 में नागिना सीट से उनकी जीत ने यह संकेत दिया कि वह बीएसपी के विकल्प के रूप में उभर सकते हैं।

कांग्रेस की वापसी?

कांग्रेस, जो कभी दलितों की पारंपरिक पार्टी मानी जाती थी, अब इस वोट बैंक को फिर से अपने पाले में लाने की कोशिश कर रही है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने दलित उत्पीड़न के मुद्दों पर मुखरता दिखाई है। 2022 के आजमगढ़ उपचुनाव में बीएसपी की मौजूदगी ने एसपी-कांग्रेस गठबंधन को नुकसान पहुंचाया, जिससे यह साफ हुआ कि बीएसपी की कमजोरी का फायदा कांग्रेस उठा सकती है। हालांकि, कांग्रेस को अभी संगठनात्मक मजबूती और विश्वसनीयता की चुनौती का सामना करना है। मायावती भी कांग्रेस पर हमलावर हैं, उनका आरोप है कि कांग्रेस सत्ता में रहते हुए दलितों की अनदेखी करती रही और अब सिर्फ वोट के लिए उनकी बात कर रही है।

चंद्रशेखर और नई पीढ़ी का उभार

चंद्रशेखर आजाद, जो भीम आर्मी के संस्थापक हैं, ने दलित राजनीति में नई ऊर्जा लाने की कोशिश की है। उनकी आक्रामक शैली और युवा अपील बीएसपी से अलग है। चंद्रशेखर मायावती पर दलित हितों को ब्राह्मणों के हाथों सौंपने का आरोप लगाते रहे हैं। उनकी पार्टी एएसपी ने हाल के उपचुनावों में बीएसपी से बेहतर प्रदर्शन किया, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या वह दलित नेतृत्व की कमान संभाल सकते हैं। हालांकि, उनकी राह आसान नहीं है। संगठन का विस्तार, संसाधनों की कमी, और मायावती के अनुभव के सामने उनकी अपेक्षाकृत कम उम्र और राजनीतिक परिपक्वता चुनौतियां हैं।

बीएसपी का भविष्य

मायावती अब पुराने नेताओं को वापस लाने की बात कर रही हैं, लेकिन यह कदम कितना कारगर होगा, यह संदिग्ध है। पार्टी के पास अभी भी एक समर्पित कैडर और वोट बैंक है, लेकिन संगठनात्मक ढांचे की कमजोरी और नेतृत्व के संकट ने इसे हाशिए पर ला दिया है। 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले मायावती के पास अपनी रणनीति बदलने का आखिरी मौका है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाईं, तो बीएसपी का अवसान तय माना जा सकता है।

निष्कर्ष

दलित राजनीति बीएसपी के हाथ से निकल रही है, लेकिन यह पूरी तरह कांग्रेस के पास जाएगी या चंद्रशेखर जैसे नेता इसे हथियाएंगे, यह अभी स्पष्ट नहीं है। कांग्रेस के पास संसाधन और ऐतिहासिक आधार है, लेकिन उसकी विश्वसनीयता पर सवाल हैं। चंद्रशेखर के पास जोश और नई सोच है, लेकिन अनुभव और पहुंच की कमी है। संभावना यह है कि आने वाले समय में दलित वोट कई हिस्सों में बंटेगा, और बीएसपी की जगह कोई एक मजबूत विकल्प बनने में अभी वक्त लगेगा। मायावती के लिए यह आत्ममंथन का वक्त है—क्या वह अपनी पार्टी को फिर से खड़ा कर पाएंगी, या दलित राजनीति का नेतृत्व अब नए हाथों में चला जाएगा? समय ही इसका जवाब देगा।







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