जय प्रकाश
उत्तर प्रदेश, भारत का सबसे अधिक आबादी वाला और राजनीतिक रूप से संवेदनशील राज्य,
हाल के वर्षों में सामाजिक और जातीय तनावों का
केंद्र बनता जा रहा है। करणी सेना, जो
स्वयं को राजपूत समुदाय के हितों का रक्षक बताती है, के हालिया उग्र प्रदर्शनों ने इस तनाव को और गहरा किया है। इन
प्रदर्शनों ने न केवल कानून-व्यवस्था की स्थिति पर सवाल उठाए हैं, बल्कि यह भी चर्चा छेड़ दी है कि क्या सरकार की
मूक सहमति और विपक्ष की रणनीति नए जातीय संघर्ष को जन्म दे रही है। यह लेख करणी
सेना के प्रदर्शनों, सरकार और विपक्ष की भूमिका, सामाजिक ताने-बाने पर इसके प्रभाव और जिम्मेदारी
के सवाल का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
करणी सेना का उग्र प्रदर्शन:
पृष्ठभूमि और संदर्भ
करणी सेना, जिसकी स्थापना 2006 में
राजस्थान में लोकेंद्र सिंह कालवी ने की थी, शुरू में राजपूत समुदाय के लिए आरक्षण और ऐतिहासिक आंकड़ों के सम्मान
की मांग को लेकर सामने आई थी। समय के साथ, यह
संगठन विभिन्न विवादों, खासकर फिल्मों जैसे पद्मावत और जोधा-अकबर के विरोध, और सामाजिक मुद्दों पर आक्रामक रुख
के लिए चर्चा में रहा। उत्तर प्रदेश में हाल के वर्षों में करणी सेना की
गतिविधियां तेज हुई हैं, खासकर 2025
में राणा सांगा विवाद के बाद, जब समाजवादी पार्टी (सपा) के सांसद रामजी लाल
सुमन के एक बयान ने राजपूत समुदाय की भावनाओं को आहत किया। इसके परिणामस्वरूप,
आगरा और अन्य शहरों में करणी सेना ने बड़े पैमाने
पर प्रदर्शन किए, जिनमें कुछ हिंसक रूप भी ले लिया।
ये प्रदर्शन केवल सामाजिक असंतोष तक
सीमित नहीं रहे, बल्कि इनमें राजनीतिक रंग भी दिखाई
दिया। आगरा में 12 अप्रैल 2025 को ‘रक्त स्वाभिमान सम्मेलन’ के दौरान करणी सेना और क्षत्रिय समुदाय
ने तलवारों और डंडों के साथ शक्ति प्रदर्शन किया, जिसने प्रशासन को हाई अलर्ट पर ला दिया। ऐसे प्रदर्शनों ने यह सवाल
उठाया कि क्या उत्तर प्रदेश जातीय ध्रुवीकरण और हिंसा की नई लहर की ओर बढ़ रहा है।
सरकार की मूक सहमति: क्या योगी सरकार
की नीति जिम्मेदार है?
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी
(भाजपा) की सरकार, जिसका नेतृत्व मुख्यमंत्री योगी
आदित्यनाथ कर रहे हैं, को करणी सेना के प्रदर्शनों को
नियंत्रित करने में कथित नरमी के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है। कुछ
विश्लेषकों का मानना है कि सरकार ने करणी सेना जैसे संगठनों को अप्रत्यक्ष रूप से
बढ़ावा दिया है, ताकि राजपूत वोट बैंक को मजबूत किया
जा सके। यह रणनीति विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि राजपूत समुदाय उत्तर प्रदेश में एक प्रभावशाली जातीय समूह है,
जो कई विधानसभा और लोकसभा सीटों पर निर्णायक
भूमिका निभाता है।
- प्रशासनिक निष्क्रियता: आगरा में करणी सेना के प्रदर्शन के दौरान,
पुलिस और प्रशासन ने सख्त
कार्रवाई करने में देरी दिखाई। सपा सांसद रामजी लाल सुमन के आवास पर मार्च 2025
में हुई तोड़फोड़ की घटना में
भी प्रशासन की लापरवाही की बात सामने आई। यह सवाल उठता है कि क्या सरकार ने
जानबूझकर स्थिति को अनियंत्रित होने दिया, ताकि सपा पर दबाव बनाया जा सके।
- बुलडोजर मॉडल की चयनात्मकता: योगी सरकार ने अपने कार्यकाल में ‘बुलडोजर
मॉडल’ के तहत अपराधियों और माफियाओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई की है। हालांकि,
करणी सेना जैसे संगठनों पर यह
नीति लागू नहीं दिखती। इससे विपक्ष को यह कहने का मौका मिला कि सरकार का
बुलडोजर केवल कुछ समुदायों के खिलाफ ही चलता है।
- राजनीतिक लाभ: कुछ लोग मानते हैं कि भाजपा ने करणी सेना के
प्रदर्शनों को इसलिए अनदेखा किया, क्योंकि
यह सपा और अन्य विपक्षी दलों को कमजोर करने का एक अवसर था। राणा सांगा विवाद
ने सपा को राजपूत समुदाय के खिलाफ खड़ा कर दिया, जिसका फायदा भाजपा को 2027 के विधानसभा चुनावों में मिल सकता है।
हालांकि, यह कहना गलत होगा कि सरकार पूरी तरह से मूक रही। आगरा में प्रदर्शन से
पहले सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत किया गया था, और हिंसा को रोकने के लिए अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया था। फिर
भी, सरकार की प्रतिक्रिया को पर्याप्त
रूप से प्रभावी नहीं माना गया।
विपक्ष की रणनीति: स्वार्थों के लिए
सामाजिक तनाव को हवा?
विपक्ष, विशेष रूप से समाजवादी पार्टी, ने इस विवाद को अपने पक्ष में करने की कोशिश की है, लेकिन उसकी रणनीति ने उल्टा असर दिखाया है। सपा
सांसद रामजी लाल सुमन के बयान ने राजपूत समुदाय को नाराज किया, और पार्टी ने इस मुद्दे को शांत करने के बजाय,
इसे और भड़काने का काम किया। सपा प्रमुख अखिलेश
यादव ने करणी सेना को ‘भाजपा की बी-टीम’ करार दिया, जिससे तनाव और बढ़ गया।
- जातीय ध्रुवीकरण की कोशिश: सपा ने हमेशा खुद को पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों का हिमायती
बताया है। राणा सांगा विवाद में, सपा
ने राजपूत समुदाय के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाकर अपने कोर वोट बैंक को मजबूत
करने की कोशिश की। हालांकि, यह
रणनीति उल्टी पड़ गई, क्योंकि
राजपूत समुदाय ने सपा के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रदर्शन शुरू कर दिए।
- विपक्ष की चुप्पी: जहां सपा ने इस मुद्दे पर आक्रामकता दिखाई,
वहीं अन्य विपक्षी दल, जैसे कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी (बसपा),
इस मामले में चुप रहे। यह उनकी
रणनीति का हिस्सा हो सकता है, ताकि
वे राजपूत समुदाय की नाराजगी से बचे रहें। लेकिन इस चुप्पी ने यह संदेश दिया
कि विपक्ष केवल अपने वोट बैंक के हिसाब से ही बोलता है।
- सामाजिक ताने-बाने पर असर: सपा के बयानों ने न केवल राजपूत समुदाय को
नाराज किया, बल्कि
अन्य समुदायों में भी यह धारणा बनी कि सपा जानबूझकर जातीय तनाव को बढ़ावा दे
रही है। इससे सामाजिक एकता को नुकसान पहुंचा और विभिन्न समुदायों के बीच
अविश्वास बढ़ा।
सामाजिक ताने-बाने पर प्रभाव: क्या
उत्तर प्रदेश नए संघर्ष की ओर?
उत्तर प्रदेश का सामाजिक ताना-बाना
पहले से ही जटिल और नाजुक है। जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण इस राज्य की राजनीति का
अभिन्न हिस्सा रहा है। करणी सेना के प्रदर्शन और उससे जुड़े विवादों ने इस
ताने-बाने को और कमजोर किया है।
- जातीय ध्रुवीकरण: राणा सांगा विवाद ने राजपूत समुदाय को एकजुट
करने का काम किया, लेकिन यह
एकता अन्य समुदायों के खिलाफ दिखाई दी। सपा सांसद के बयान को दलित समुदाय के
कुछ नेताओं ने समर्थन दिया, जिससे
राजपूत बनाम दलित-पिछड़ा का नया नैरेटिव बनने का खतरा पैदा हुआ।
- हिंसा का डर: करणी सेना के प्रदर्शनों में तलवारों और
डंडों का खुला प्रदर्शन चिंता का विषय है। यह न केवल कानून-व्यवस्था के लिए
खतरा है, बल्कि
अन्य समुदायों में भी असुरक्षा की भावना पैदा करता है। संभल में 2024 में हुई हिंसा, जिसमें करणी सेना ने मस्जिद सर्वे के खिलाफ
प्रदर्शन किया था, इसका एक
उदाहरण है।
- सामुदायिक अविश्वास: इन प्रदर्शनों ने समुदायों के बीच अविश्वास
को बढ़ाया है। राजपूत समुदाय का मानना है कि उनकी भावनाओं का अपमान किया गया,
जबकि अन्य समुदाय इसे सवर्ण
आक्रामकता के रूप में देख रहे हैं। यह अविश्वास सामाजिक एकता के लिए
दीर्घकालिक खतरा बन सकता है।
कौन अधिक जिम्मेदार: सत्ता पक्ष या
विपक्ष?
इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है,
क्योंकि दोनों पक्षों ने अपने-अपने स्वार्थों के
लिए स्थिति को भड़काने का काम किया है। फिर भी, कुछ बिंदुओं के आधार पर विश्लेषण किया जा सकता है:
- सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी: योगी सरकार, जो कानून-व्यवस्था को अपनी सबसे बड़ी
उपलब्धि बताती है, ने करणी
सेना के प्रदर्शनों को नियंत्रित करने में नरमी बरती। यह नरमी जानबूझकर हो या
अनजाने में, लेकिन
इसने हिंसा और तनाव को बढ़ने का मौका दिया। सरकार का यह रवैया इसलिए भी गंभीर
है, क्योंकि उसके पास कानून लागू
करने की पूरी शक्ति और संसाधन हैं।
- विपक्ष की गलत रणनीति: सपा ने राणा सांगा विवाद को एक अवसर के रूप
में देखा, लेकिन
उसकी आक्रामकता और असंवेदनशील बयानों ने स्थिति को और खराब किया। सपा की यह
रणनीति न केवल राजपूत समुदाय को नाराज करने वाली थी, बल्कि उसने अपने ही वोट बैंक को भी जोखिम
में डाल दिया।
- करणी सेना की भूमिका: करणी सेना को भी इस तनाव के लिए जिम्मेदार
ठहराया जाना चाहिए। संगठन ने सामाजिक मुद्दों को उठाने के बजाय, हिंसक और आक्रामक प्रदर्शनों को प्राथमिकता
दी। इससे न केवल उसकी विश्वसनीयता प्रभावित हुई, बल्कि सामाजिक एकता को भी नुकसान पहुंचा।
कुल मिलाकर, सत्ता पक्ष की निष्क्रियता और विपक्ष की गलत रणनीति दोनों ने इस संकट
को बढ़ाया है। हालांकि, सरकार की जिम्मेदारी अधिक है,
क्योंकि वह कानून-व्यवस्था बनाए रखने और सामाजिक
सौहार्द सुनिश्चित करने के लिए सीधे जवाबदेह है।
निष्कर्ष: रास्ता क्या है?
उत्तर प्रदेश में करणी सेना के उग्र
प्रदर्शन और उससे उत्पन्न जातीय तनाव चेतावनी के संकेत हैं। यह स्पष्ट है कि सत्ता
पक्ष और विपक्ष दोनों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए सामाजिक ताने-बाने को
जोखिम में डाला है। इस स्थिति से निपटने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:
- सख्त प्रशासनिक कार्रवाई: सरकार को करणी सेना जैसे संगठनों पर नकेल
कसनी होगी। हिंसक प्रदर्शनों को रोकने के लिए त्वरित और निष्पक्ष कार्रवाई
जरूरी है।
- सामाजिक संवाद: सभी समुदायों के बीच संवाद की जरूरत है।
सरकार और नागरिक संगठनों को मिलकर ऐसी पहल करनी चाहिए, जो सामुदायिक एकता को बढ़ावा दे।
- राजनीतिक परिपक्वता: सत्ता पक्ष और विपक्ष को अपनी रणनीति में
बदलाव लाना होगा। जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति को छोड़कर समावेशी विकास पर
ध्यान देना होगा।
- मीडिया की भूमिका: मीडिया को भी संवेदनशील मुद्दों को सावधानी
से कवर करना चाहिए, ताकि
तनाव को और हवा न मिले।
उत्तर प्रदेश का सामाजिक ताना-बाना
मजबूत है, लेकिन इसे बनाए रखने के लिए सभी
पक्षों को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो यह तनाव नए जातीय संघर्षों को जन्म दे सकता है,
जिसका खामियाजा पूरे राज्य को भुगतना पड़ेगा।
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